Tuesday, 13 January 2015

Hindi poem on Dahej

दहेज़ 


दीवाने है कितने ही जिसकी आस में 
और कितने ही जिससे परहेज करते है 
सूनी सी होती है शादियां बिना जिसके 
शायद इसलिए लोग इसे दहेज़ कहते है।

फैली है समाज में जो बुराई की तरह 
हर रोज छूती आसमा जो मंहगाई की तरह 
हर शख्श जानता है जिसके दिए दर्द को 
फिर भी क्यों नहीं मिटती यह परछाई की तरह। 


जाने कितनी बहनों का इसने 
सुहाग छीना और खुशियां उजड़ी है 
दहेज़ रुपी इस दानव को अब 
जड़-मूल से मिटाने की तैयारी है। 


अब और नहीं सहेंगे यह अत्याचार 
हर घर में यह चेतना फैलानी है 
दहेज़ के दानव का मिटा कर नामोनिशां 
इस मुल्क में खुशियां फिर से लानी है। 

- महेश कुमार बैरवा 

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